लेह। लद्दाख, जिसने कभी केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) का दर्जा पाने को अपनी बड़ी उपलब्धि माना था, आज एक गहन पहचान और अस्तित्व के संकट से गुजर रहा है। 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने और जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के बाद लद्दाख को अलग यूटी बनाया गया था। शुरुआती उत्साह अब स्थानीय आबादी में गहरी चिंताओं और अनिश्चितता में बदल गया है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और प्रारंभिक उम्मीदें
दशकों से, लद्दाख के लोग जम्मू-कश्मीर के भीतर उपेक्षा और विकास के अवसरों की कमी की शिकायत करते रहे हैं। उनकी मांग थी कि इस दूरस्थ और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र को प्रशासनिक स्वायत्तता मिले। इसलिए, जब केंद्र सरकार ने उनकी इस लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा किया, तो प्रारंभिक प्रतिक्रिया सकारात्मक थी। यह माना गया कि अब सीधे केंद्र के शासन से विकास की गति तेज होगी, नौकरियों के अवसर बढ़ेंगे और बुनियादी ढाँचे में सुधार होगा।
उभरती चिंताएँ: 'खुले चारागाह' का डर
हालाँकि, जल्द ही यह उत्साह चिंता में बदल गया। अनुच्छेद 370 और 35A के हटने का मतलब था कि अब जमीन खरीदने, व्यवसाय स्थापित करने और निवेश करने पर कोई विशेष प्रतिबंध नहीं रह गया था। स्थानीय लोगों को डर है कि यह क्षेत्र बाहरी लोगों के लिए एक 'खुला चारागाह' बन जाएगा। उनकी प्रमुख चिंताएँ इस प्रकार हैं:
- पारिस्थितिकी का संकट: लद्दाख एक नाजुक, उच्च-ऊंचाई वाला रेगिस्तान है, जहाँ पानी की पहले से ही कमी है। स्थानीय लोग पहले से ही वसंत ऋतु में पानी के लिए संघर्ष करते हैं। बड़े उद्योगों और बढ़ती आबादी का दबाव इस सीमित संसाधन पर और भारी पड़ेगा। ग्लेशियरों के पिघलने का खतरा और बढ़ जाएगा, जो इस क्षेत्र की जल आपूर्ति का मुख्य स्रोत हैं।
- सांस्कृतिक विलुप्ति: लद्दाख की बौद्ध-प्रभावित独特 संस्कृति, परंपराएँ और जीवनशैली सदियों से संरक्षित रही हैं। बाहरी प्रभाव और बड़े पैमाने पर आप्रवासन से स्थानीय संस्कृति के तेजी से क्षरण होने का खतरा है।
- भूमि अधिकार और आर्थिक हाशियेकरण: स्थानीय लोगों को आशंका है कि बाहरी पूंजी और व्यवसायियों के सामने वे आर्थिक रूप से टिक नहीं पाएंगे। उनकी जमीनें और रोजगार के अवसर छिनने का डर है।
- लोकतांत्रिक घाटा: लद्दाख अब एक ऐसा केंद्र शासित प्रदेश है जहाँ की अपनी विधानसभा नहीं है। इसका मतलब है कि स्थानीय जनता के पास सीधे तौर पर अपने भविष्य के फैसलों पर कोई विधायी अधिकार नहीं बचा। प्रशासन सीधे केंद्र सरकार के अधीन चलाया जा रहा है।
सोनम वांगचुक और नागरिक समाज की आवाज
प्रखर शिक्षाविद् और सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक लद्दाख की इन चिंताओं की एक प्रमुख आवाज बनकर उभरे हैं। उनका कहना है कि लद्दाख को एक "शांत प्रकृति अभयारण्य" होना चाहिए, न कि बड़े उद्योगों का अड्डा। उन्होंने चेतावनी दी है कि "ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे और उद्योग भी खत्म हो जाएंगे।" उनकी दृष्टि लद्दाख के लिए एक ऐसी है जहाँ लोग "तीर्थयात्रियों की तरह आएं, न कि लुटेरों की तरह।"
छठी अनुसूची: समाधान का मार्ग?
इन चिंताओं के समाधान के रूप में, लद्दाख में एक मजबूत जनआंदोलन खड़ा हो गया है, जिसकी मुख्य मांग है - भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के तहत स्वायत्तता।
- छठी अनुसूची क्या है? यह संविधान का एक प्रावधान है जो असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में स्वायत्त जिला परिषदों के गठन की अनुमति देता है।
- इसके लाभ: इन परिषदों को भूमि, वन, जल, कृषि, समाजिक रीति-रिवाजों और यहाँ तक कि कुछ सीमित विधायी शक्तियों पर नियंत्रण का अधिकार होता है। इससे स्थानीय समुदायों को अपने संसाधनों, संस्कृति और परंपराओं की रक्षा करने में मदद मिलती है।
लद्दाख के लोगों का मानना है कि छठी अनुसूची का दर्जा मिलने से उन्हें बाहरी हस्तक्षेप से सुरक्षा मिलेगी और स्थानीय स्वशासन को बल मिलेगा।
सुझाव और राह आगे
लद्दाख के सामने मौजूद इस जटिल स्थिति में संतुलन बनाना जरूरी है।
- संवाद को प्राथमिकता: केंद्र सरकार और लद्दाख के नेतृत्व को स्थानीय नागरिक समाज, धार्मिक नेताओं और विशेषज्ञों के साथ व्यापक संवाद शुरू करना चाहिए।
- संवैधानिक सुरक्षा पर विचार: छठी अनुसूची या इसके समतुल्य कोई संवैधानिक प्रावधान लद्दाख की विशिष्ट पहचान और पर्यावरण की रक्षा के लिए एक ठोस ढाँचा प्रदान कर सकता है।
- स्थायी विकास मॉडल: लद्दाख के लिए विकास का मॉडल बड़े उद्योगों पर आधारित न होकर, स्थायी पर्यटन, ईको-फ्रेंडली इन्फ्रास्ट्रक्चर, सौर ऊर्जा और स्थानीय हस्तशिल्प व कृषि को बढ़ावा देने वाला होना चाहिए।
- जल संरक्षण अभियान: पानी की कमी को दूर करने के लिए स्थानीय स्तर पर जल संचयन की परंपरागत तकनीकों (जैसे कृत्रिम ग्लेशियर) को बढ़ावा देना और आधुनिक तकनीक को शामिल करना जरूरी है।
निष्कर्ष:
लद्दाख आज एक मोड़ पर खड़ा है। एक तरफ आधुनिक विकास और एकीकरण के अवसर हैं, तो दूसरी तरफ अपनी पारिस्थितिकी और सांस्कृतिक विरासत को खो देने का खतरा है। लद्दाख के भविष्य का रास्ता दिल्ली से नहीं, बल्कि लेह की आवाजों को सुनने और एक ऐसा मॉडल तैयार करने से निकलेगा, जो विकास और संरक्षण के बीच एक स्थायी संतुलन स्थापित कर सके। छठी अनुसूची की मांग इसी संतुलन की तलाश का एक प्रतीक है।




